नीलम कुलश्रेष्ठ
जब विश्व सभ्यता बर्बर थी, रोग तब भी मानव शरीर को घेरते थे। लोग यही समझते थे कि भगवान ने रोगी को उसके पापों की सजा दी है। इसलिये उसे रोग हुआ है। लोग मंदिरों में चिकित्सा के लिये जाते थे जहाँ के पुजारी रोगी को कुछ खाने को नहीं देते। कोई जड़ी बूटी पिलाकर सोने पर मजबूर कर देते थे। रोगी को स्वप्न में जो दिखाई देता था उसी के अनुसार चिकित्सा करते थे ।
ईसा पूर्व 460 से 356 में हिपोकेटरो (हिपोक्रेटिस) नामक व्यक्ति ने ये अन्ध श्रद्धा तोड़ी कि रोगी को रोग होने का कारण उसका पाप नहीं है बल्कि शरीर की कोई गड़बड़ी है जिसे ठीक करने की क्षमता मानव में है। यदि किसी व्यक्ति को एक भी रोग हो जाये तो शरीर कमजोर होकर अन्य रोगों को भी आमंत्रण देता है इसलिये रोग होते ही उसकी चिकित्सा आवश्यक है।
हिपोकेटरो ने ही लोगों को समझाया, सादा भोजन, हवा, पानी, स्वस्थ मन व व्यायाम ही रोग को मिटा सकता है। बाद में एक डॉक्टर गेल ने एक थियोरी दी कि नसों पर दबाव होने से रोग होता है। इसके बाद के साहित्य व इतिहास में इस चिकित्सा का उल्लेख देखने में आया कि हाथ से हड्डी रोग ठीक किये जा सकते हैं। बिना दवा के की गई इस चिकित्सा को राजवैद्यों ने कोई महत्त्व नहीं दिया लेकिन ये चिकित्सा धर्मगुरुओं, किसानों, शिक्षकों व समाजसेवी व्यक्तियों ने अपनाई व इस चिकित्सा की परंपरा आज तक पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है।
शरीर का कोई भी हड्डी रोग हड्डी अपने स्थान से खिसक जाने, घिस जाने या बढ़ जाने के कारण होता है। कभी-कभी ‘वर्टीबल कॉलम’ (रीढ़ की हड्डी का मनका (वर्टिब्री)) अपने स्थान से खिसक जाने के कारण होता है। हड्डी में पड़ा क्रेक या उसके टूट जाने पर भी पीड़ा होती है। कुछ लोग हाथ इन हड्डियों को सही स्थान पर ले जाने की चिकित्सा पद्धति जानते हैं जिससे हड्डी रोग मिट जाता है। इस चिकित्सा पद्धति को ‘काइरोप्रेक्टिक’ कहते हैं। ये ग्रीक भाषा का शब्द है जिसमें काइरो का अर्थ हाथ से चिकित्सा। वैसे तो यह चिकित्सा हजारों वर्ष पुरानी है
हाथ पैर से हड्डी रोगियों को किस तरह ठीक किया जाता है, यदि यह चिकित्सा देखनी हो तो वड़ोदरा के श्री रतिभाई पदमसी पनपारिया को अपने घर के बरामदे में यह समाज सेवा करते देखा जा सकता है। मरीजों की की भीड़ का प्रबंधन करते हैं व्यवस्था श्री हँसमुखभाई।
ये रोगी तरह-तरह के रोगों से ग्रस्त होते हैं स्पांडोलाइसिस, रीढ़ की हड्डी का मनका खिसक जाना, पीठ बाँहो में दर्द, पैरों का दर्द। रतिभाई रोगी को फर्श पर लिटाकर, बिठाकर उनकी हड्डियों को हाथ या पैर से सेट करते जाते हैं। वह सिर्फ तीन से पाँच मिनट एक रोगी को देते हैं। ऐसे रोगी भी वह कायरोप्रेक्टिक से ठीक कर देते हैं जिनके लिए हड्डी रोग विशेषज्ञों ने ऑपरेशन बता दिया होता है।
आईए श्री रतिभाई पदमसी पनपारिया से मिलकर उनके बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करते हैं।
" आप ये समाज सेवा सन् 1895 से आ रहे हैं। आपने यह चिकित्सा कहाँ से सीखी?"
“मैंने विधिवत् ये नहीं सीखी। मैं जब पाँच-छः वर्ष का था तो अपने मामा नरसीभाई रामैया के पास कच्छ में रहा था। उन्होंने सात वर्ष में पाँच हजार रोगी ठीक किये हैं जिनमें से दो सौ से अधिक मरीजों को शल्यक्रिया से बचाया भी है। तीस से अधिक रोगियों की लकवे या डायबिटीज से आँख की दृष्टि चली गई थी लेकिन पंद्रह दिनों के अंदर उन्होंने उनकी दृष्टि भी लौटा दी।”
‘ऐसा कभी नहीं हुआ। जिसका रोग मेरी पहुँच से बाहर है मैं पहले ही बता देता हूँ। रोगी यहाँ से ठीक होकर ही जाता है। मैं हृदयरोगी -जो साँस के रोग से ग्रस्त व्यक्ति की चिकित्सा नहीं करता।’"
`-‘कोई महत्त्वपूर्ण घटना?’`
`‘मेरे सहपाठी की बेटी मेरे पास इलाज के लिये आती थी। वह हमेशा उसे डाँटता था कि रतिभाई ‘फ्रॉड’ है उसे कुछ नहीं आता। तू उससे हड्डी तुड़वा लेगी लेकिन वह लड़की ठीक हो गई। कुछ वर्षों बाद उसके हाथ में ड़ॉ. रघुभाई शास्त्री की लिखी पुस्तक ‘काइरोप्रेक्टिक शुं छे?’ आई तब वह मेरे पास आकर पुस्तक दे गया व मुझसे शर्मिंदा होकर माफी माँगी क्योंकि उसे पता लग गया था कि इस चिकित्सा का पूरा-पूरा वैज्ञानिक आधार है।’`
रतिभाई को एक्स-रे इत्यादि देखने की आवश्यकता नहीं रहती। जिस तरह बहुत से गायक, पत्रकार, नर्तक बिना किसी शास्त्रीय प्रशिक्षण के अपने क्षेत्र में अपनी नैसर्गिक प्रतिभा के कारण कुछ कर गुजरते हैं उसी तरह के ‘काइरोप्रेक्टर’ है रतिभाई जो कि अपने ट्रांसपोर्ट बिजनेस में से समय निकालकर बिना एक पैसा लिये हड्डी रोगियों को ठीक करते हैं। वे सिर्फ लहसुन वाले तेल को लगाकर रेती से सिकाई बताते हैं।
‘एक लड़के के घुटने में तीन फ्रेक्चर थे डॉक्टर ने उससे कहा था यदि ऑपरेशन नहीं करवाया तो यह घुटना सड़ जायेगा, पक जायेगा। ऑपरेशन व स्टील के सामान का खर्चा तीस हजार बताया था। इस लड़के को मेरे पास लाया गया। पंद्रह दिन बाद डॉक्टर उस लड़के का एक्स-रे निकाल कर स्वयं हैरान हो गया।’
श्री शास्त्रीजी की पुस्तक के अनुसार उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में एक्स-रे की खोज हुई । प्राकृतिक उपचार, होमियोपेथी आदि चिकित्सा पद्धति की खोज हुई। इसी समय में ऑस्टियोपेथी व काइरोप्रेक्टिक का विकास हुआ। समस्त अमेरिका में ये बात फैल गई कि डॉ. डी.डी. पामरे ने हड्डी रोग से पीड़ित व्यक्ति की चिकित्सा काइरोप्रेक्टिक से की है। कुछ समय के बाद अमेरिकावासियों ने इस बात को मान लिया कि काइरोप्रेक्टिक से मानव शीघ्र अच्छा होता है लेकिन जाहिर है हड्डी रोग विशेषज्ञों की प्रेक्टिस पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा वे बेहद नाराज हो गये। उन्होंने इसके विरुद्ध प्रचार किया कि ये चिकित्सा छम्भ चिकित्सा है।
उस समय काइरोप्रेक्टर कायदे से न तो नाड़ी परीक्षा कर सकते थे, न ब्लडप्रेशर माप सकते थे, कोई दवा नहीं देते थे। सरकार ने उन्हें डॉक्टर की उपाधि देने से इन्कार कर दिया। परन्तु अमेरिका की आम जनता एक दूसरे की तरह जागरूक जनता है। उसने मंत्रियों को घिरावकर, संसद में शोर मचाकर इस पद्धति को मान्यता दिलवाई।
“आपका पहला मरीज कौन था?”
“अपना पहला मरीज मैं ही था। एक बार रास्ते में मेरा पैर मुड़ गया। मैं गिर गया। मामा के घर के उनकी चिकित्सा के दृश्य मेरी आँखों में तैर गये। मैंने अपने मोच आये पैर की हड्डियाँ अपने ही हाथ से सेट करके पैर को ठीक कर लिया। जिस जानलेवा दर्द से मुझे छुटकारा मिला, मुझे लगा कि मैं और लोगों को भी इससे छुटकारा दिलवाऊँ। मैं आसपास के लोगों के हड्डी रोगों को हाथ से ठीक करने लगा।”
-“आपका आत्मविश्वास कैसे बढा?”
“मैं हड्डी पर हाथ रखकर तुरंत जान लेता हूँ कि कहाँ क्या गड़बड़ है मुझे क्या करना चाहिए। धीरे-धीरे अनुभवों व प्रयोगों ने मुझमें आत्मविश्वास भर दिया। अब मैं हाथ-पैर के रोगों को अपने अनुभवों अनुसार उन पर सोल्जर नॉट या अन्य तरह से पट्टी बाँधकर उन्हें ठीक कर देता हूँ।”
रतिभाई पन्द्रह-सोलह वर्ष से ये समाज सेवा कर रहे हैं। श्री केशुभाई, भूतपूर्व चीफ़ मिनिस्टर को भी अपनी चिकित्सा करवाने उनके यहाँ लाइन में ही बैठना पड़ता था।
"इतने वर्षों में कभी ऐसा हुआ है कि रोगी की कोई हड्डी में फ़्रेक्चर हो गया हो?
काइरोप्रेक्टिक की शुरूआत किस देश में हुई, किसने की, किस समय हुई ये बात तो आज भी रहस्य बनी हुई है लेकिन मिस्त्र, भारत, ग्रीक, अमेरिका के आदिवासी, यूरोप के बोहेमियन ये चिकित्सा प्राचीनकाल से कर रहे हैं, इस बात के प्रमाण अनेक पुस्तकों में मिलते हैं।
अमेरिका में प्रथम काइरोप्रेक्टिक कॉलेज की स्थापना डॉ. डी.डी. पामरे ने की थी। आज वहाँ बीस से अधिक कॉलेज हैं व पचास हजार से ऊपर डॉक्टर इस पद्धति का उपयोग करते हैं। सरकार व स्वास्थ्य संगठनों के प्रयास से इस क्षेत्र में शोध हो रहे हैं। कनाडा, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, इंग्लैंड, फ्रान्स, जर्मनी, रूस, स्विटजरलैंड आदि को इसकी जानकारी दी जा रही है।
डॉ. पामरे ने अपनी पुस्तक में स्पष्ट लिखा है कि ‘इस चिकित्सा की खोज मैंने नहीं की है। ये तो करोड़ वर्ष पुरानी है हाँ, ये जरूर है कि मैं ऐसा पहला चिकित्सक हूँ जिसने खिसके हुए मनके को हाथ से सही जगह पहुँचाया है।’`
इन्हीं का रोगी लेटिन ग्रीक भाषा का एक विद्वान था जिसने इस चिकित्सा को ‘काइरोप्रेक्टिक’ का नाम दिया था।
पहले इस चिकित्सा में रीढ़ की हड्डी के रोग ठीक किये जाते थे बाद में छाती, गर्दन, हाथ-पैर की चिकित्सा का समावेश होता चला गया। बाद में इसमें विद्युत चिकित्सा, भोजन की पाबंदी का समावेश किया गया। कुछ चिकित्सक ऐसी मेज बनवा लेते हैं जो ऊँची व नीची की जा सके।
अमेरिका में कुछ नियम भी बनाये गये हैं। प्राइवेट कायरोप्रेक्टर को अस्पताल में काम करने का छः वर्ष का अनुभव होना चाहिय़े। उन्हें शरीर शास्त्र का ज्ञान, प्रयोगशाला के टेस्ट, एक्सरे द्वारा हड्डी रोग की पहचान का ज्ञान होना बहुत जरूरी है।
रीढ़ की हड्डी का कोई मनका अपनी जगह से हट जाता है तो आसपास की रक्तवाहिनी नली भी दब जाती है। इस रोग के लिये मनके का ‘डिस्लोकेशन’ शब्द प्रायः प्रयोग में लाया जाता है लेकिन जब मनका अधिक खिसक जाता है तो उसे ‘सबलक्सेशन’ कहते हैं। इस अवस्था में जिम्मेदार हैं एक पैर पर अपना वजन डालकर खड़े होने की आदत, रात में सोने के वक्त गलत अंदाज, हर समय ऊँची एड़ी के चप्पल या सैंडिल पहनने की आदत होने से रीढ़ की हड्डी पर जोर पड़ता है, तभी इसे रोग हो जाता है। वृद्दावस्था में हड्डियों की पोषण लेने की क्षमता कम हो जाती है इसलिए ‘सबलसेक्शन’ जलदी हो जाता है।
अमेरिका के ये कार्यरत फिजियोथिरेपिस्ट श्री अमित सक्सैना, फिजियोथिरेपी व काइरोप्रेक्टिक में अंतर स्पष्ट करते हैं, फिजियोथिरेपी के अंतर्गत हड्डी रोगों में विशेष कोण से व्यायाम करना सिखाया जाता है। काइरोप्रेक्टिक के डॉक्टर फिजीशियन ही होते हैं। इनका विशेष ध्यान रोगी के फिजियोल़ॉजीकल व बॉयोकेमिकल पहलुओं पर रहता है। इस हाथ से की गई चिकित्सा के दौरान रोगी की स्पाइन, हड्डियाँ व पोषण करने वाले अंगों व भावनात्मक व पर्यावरण से उसके संबंध पर प्रभाव पड़ता है जो उसे निरोगी बनाता है।
“अमेरिका में हड्डी को ठीक करने के लिये वहाँ ये चिकित्सा पद्धति बहुत लोकप्रिय है?”
“हाँ, यहाँ पर इसके कॉलेज है। जहाँ पर व्यवस्थित रूप से चार वर्ष शिक्षा दी जाती है। पहले दो वर्ष अध्ययन के हैं, बाद में प्रशिक्षण दिया जाता है। ये चिकित्सा बिना दवाई व बिना शल्यक्रिया के भी की जाती है। अमेरिका में अमेरिकन काइरोप्रेक्टिक एसोसिएशन भी है। प्रशिक्षित कायरोप्रेक्टर मैकेनिकल व इलेक्ट्रिकल मशीनों का भी प्रयोग करते हैं। ये रोगी को सही खान-पान, व्यायाम व अपनी दिनचर्या संयमित रखने की भी सलाह देते हैं।”
इस एसोसिएशन की सूचना के अनुसार ऐसे दस्तावेज उपलब्ध है किस 2700 बी.सी. में सबसे पहले चीनी कंगफू ने माँसपेशियों के मेनीपुलेशन का प्रदर्शन किया था। उन्होंने एक बहरे व्यक्ति की ऊपर की स्पाइनल ऊपरी मनके को सही स्थान पर खिसका दी, तो उस बहरे व्यक्ति को सुनाई देने लगा था। अमेरिका में काइरोप्रेक्टिक लोकप्रिय हो गए।
अमेरिका के डी.डी.डी. मामरे ने इस पद्धति को वैज्ञानिक स्वस्थ प्रदान किया। इसके चिकित्सक को ‘काइरोप्रेक्टर’ कहते हैं।
इसी चिकित्सा का परिचय दिया है बम्बई के डॉ. रघुभाई शास्त्री ने अपनी गुजराती पुस्तक ‘काइरोप्रेक्टिक शुं छे?’ में। इन्होंने इंग्लैंड जाकर ‘ऑस्टियोपेशी’ और ‘नेचरक्योर’ की शिक्षा ली। अमेरिका में ‘काइरोप्रेक्टिक’ का कोर्स किया व बम्बई के बोरिवली में नर्सिंग होम व काइरोप्रेक्टिक क्लीनिक का संचालन किया। इनकी मृत्यु के बाद इनकी पुत्रियाँ भारती बेन व ज्योति बेन इसका संचालन कर रही है।
इंग्लैंड के हर्बर बार्कर नाम के हाडवैद ने भी कितने ऐसे रोगियों को ठीक किया है जिनके लिये एलोपेथिक चिकित्सक जवाब दे चुके थे अब तो विश्व के कितने ही हड्डी रोग विशेषज्ञ इस पद्धति पर अपनी चिकित्सा से अधिक विश्वास करने लगे हैं।
एलेक्जेंडर सिकंदर के एक सेनापति की पुस्तक में भी इसका उल्लेख मिलता है। उनकी युद्ध के दौरान पैर की हड्डी टूट गई थी। वह रास्ता भटकता हुआ किसी तरह एक गाँव पहुँच गया। वहाँ के एक ग्रामीण की चिकित्सा से वह तीन दिन में ही चलने-फिरने लगा।
शरीर बेडौल हो जाता है। शरीर की त्वचा का रंग बदल जाता है। कभी-कभी ये हिस्सा ठंडा या गर्म लगने लगता है व इससे ज्ञानतंतुओं पर दबाव पड़ता है। इससे ज्ञानतंतु तंत्र के कार्यों में बाधा पड़ती है जिससे अन्य रोग होने की संभावना रहती है। जब हाथ से खिसके हुए मनके को बिठा दिया जाता है तो रोग मिट जाता है।
मनुष्य की रीढ़ की हड्डी वैसे तो इतनी मजबूत होती है कि सर्कस में खेल ही खेल में लोग दो सौ पाउन्ड का वजन उठा लेते हैं । झूले के खेल में इसी की सहायता से हवा में गुलाटी खाते हुए दूसरे झूले को पकड़ लेते हैं। योग करने से भी शरीर स्वस्थ रहता है।
मानव शरीर में रीढ़ की हड्डी का बहुत महत्त्व होता है इसी की शक्ति व बनावट से शरीर अपना बोझ सँभालता है इसक मुड़ने से शरीर मुड़ता है, झुकता है। इसके मनके एक दूसरे में फंसे रहते हैं। मनके का आगे का भाग शरीर का बोझ संभालता है, दो मनकों के बीच एक गद्दी होती है इसी पर मनका इधर-उधर घूम सकता है। हर एक मनके के अंदर एक छेद होता है। रीढ़ की हड्डी को एक-दूसरे से जुड़े मनकों के बीच से ज्ञानतंतु सारे अंगों को मस्तिष्क से जोड़ता है। जब भी मनका अपनी जगह से हटता है तो इन्हीं ज्ञानतंतुओं पर दबाव अधिक हो जाता है तो हृदय फेफड़ों, आँत, लीवर या किडनी पर भी असर हो सकता है।
काम करते समय मनका अपनी जगह रहता है। प्रकृति ने इसके थोड़ा खिसकने की जगह बनाई हुई है। दिन-भर मनुष्य काम में लगा रहता है। रात्रि में आराम करने से खिसका हुआ मनका अपना स्थान पर आ जाता है। जब मनका अपनी निश्चित परिस्थिति से बाहर खिसक जाता है तो शरीर में तकलीफ होती है। यह मनका अपने आप जगह पर नहीं आ सकता।
प्राचीन समय में मानव अधिक श्रम करता था लेकिन वाहनों पर चलने के कारण पैरों का श्रम कम हो गया है। बैठने व हाथ से किसी भार को उठाने के गलत अंदाज के कारण अक्सर मनका खिसक जाता है। लगभग अस्सी प्रतिशत लोगों को जीवन में एक बार कमर दर्द होता है।
कभी-कभी भयंकर खाँसी, दमा, पेट की गैस, हृदय रोग, किडनी रोग के कारण भी मनका खिसक जाता है। कभी-कभी अधिक थकान, मानसिक तनाव या अकस्मात लगे धक्के से भी मनका खिसक जाता है जो एक जगह बैठकर काम करते हैं उन्हें स्पॉन्डिलाइसिस जलदी होने की संभावना होती है।
"जो अक्सर पैर पर पैर रखकर बैठने के क्या कारण हैं?"
उत्तर देते हैं अमित ‘वैसे तो अस्सी प्रतिशत लोगों को कभी न कभी कमर या पीठ में दर्द की शिकायत जीवन में एक बार हो जाती है। तीन सौ साढ़े तीन सौ लाख लोगों के पीठ के निचल भाग में दर्द होता है। जिनमें से आधे रोगियों को अस्पताल में दाखिल होना पड़ता है। अमेरिका में अठ्ठारह वर्ष के तिहाई युवा को पीठ व कमर के दर्द की शिकायत हो जाती है। कायरोप्रेक्टिक के अलावा दूसरे इलाज बहुत खर्चीले व समय लेने वाले हैं। अमेरिका की एजेंसी फार हेल्थ केयर पालिसी एण्ड रिसर्च के शोध के बाद सलाह भी दी है। कि पीठ के निचले भाग में होने वाले दर्द के लिये स्पाइनल काइरोप्रेक्टिक चिकित्सा ही सर्वप्रथम करनी चाहिए। ये एसोसिएशन भी बताती है कि पीठ की किस तरह देखभाल करनी चाहिए।’
‘अमेरिका में तो ये एक अच्छा केरियर भी है?’
‘हां, बढ़ती हुई जनसंख्या की लोकप्रियता के कारण ये एक अच्छा केरियर है जिसमें आगे उन्नति करने की अधिक संभावनाएँ हैं। यहां की सरकार ने इसे चार प्रमुख लीजिंग प्रोफेशन्स में घोषित कर दिया है। चिकित्सकों को भी ये कैरियर सुरक्षित भविष्य, सम्मान व अपार धन दे रहा है। इस कैरियर में एक बहुत बड़ी सुविधा है कि कायरोप्रेक्टर किसी शहर या गाँव के अपने मनपसंद स्थान पर अपना स्वयं का क्लीनिक खोल सकता है। इस कैरियर को अपनाने के लिये उन्हीं युवक व युवतियों को आगे आना चाहिए जो हृदय से मानव सेवा करना चाहते हैं।’
कायरोप्रेक्टिक चिकित्सा में एक्स-रे से हड्डी की स्थिति देखी जाती है, यह भी देखा जाता है कि ये रोग जन्मजात तो नहीं है, आर्थोडाइटिस व कैल्शियम की कमी तो नहीं है। लहू, मूत्र व मल की जाँच के साथ सी.टी.स्केन भी करवाया जाता है। इन सब जाँच के बाद काइरोप्रेक्टर को हड्डी को सही जगह पर लाने के लिये अपने हाथ का कमाल दिखाना पड़ता है।
ऐसे में जबकि हड्डी रोग के ऑपरेशन के बाद मरीज को लंबे समय तक बिस्तर पर पड़ा रहना पड़ता है। ऑपरेशन के बाद जरूरी व्यायाम के बाद भी शरीर का वह अंग कभी-कभी जकड़ा रह जाता है। यदि भारत सरकार, गुजरात सरकार या कुछ स्वयंसेवी संस्थान विधिवत् रूप से काईरोप्रेक्टिक की शिक्षा की व्यवस्था कर सकें तो छात्रों के लिये एक व्यवसाय के नये आयाम खुलेंगे व इन हड्डी रोगों से पीड़ित व्यक्तियों को उनकी पीड़ा से शीघ्र ही राहत मिलेगी।
आज जब मैं तरह चौदह वर्ष बाद इस लेख को परिमार्जित करने बैठी तो गूगल से पता लगा कि काइरोप्रेक्टिक का एक कॉलेज भारत में पिलानी, राजस्थान में खुल चुका है। एक जानकारी के अनुसार देल्ही में काइरोप्रेक्टिक के डॉक्टर को दिखाने की फ़ीस 1500 से आरम्भ होती है व सिटींग के वे 1000 से 3000 ले सकते हैं।
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-नीलम कुलश्रेष्ठ
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