Kavyani Girvaani Pranikyaa દ્વારા પુષ્તક અને વાર્તા PDF

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Kavyani

एक नगमा तुम्हे सुनाता हूँ

 

एक नगमा तुम्हे सुनाता हूँ 

 

हर किस्सा तुम्हे दिखलाता हूँ 

 

जीवन की राह पर आज चलना तुम्हे सिखाता हूँ 

 

एक नगमा तुम्हे सुनाता हूँ 

 

पंछी का गीत सुनाता हूँ 

 

अम्बर का चाँद दिखाता हूँ 

 

फूलों की महक से बुन कर

 

एक नगमा तुम्हे सुनाता हूँ 

 

झर -झर  बहते झरने का  दीदार तुम्हे कराता हूँ 

 

एक नगमा तुम्हे सुनाता हूँ 

 

 

 

 


 

 

मैं इठला हुआ हिमालय हूँ

 

मैं इठला हुआ हिमालय हूँ 

 

जल-जल को मैं ललचाया हूँ 

 

किस दृष्टि से देखों इसको 

 

घिर आने को साँसे रुकती 

 

दीप्ति नवल के चरणों में 

 

मस्तक की आशा शिथिल हुई 

 

गंगा के वेग को झोक दिया 

 

निर्मित क्यों इसका रोक दिया 

 

मैं वरदानों में घिरा हुआ 

 

अभिश्रापों से मैं मुक्त हुआ 

 

चितवन मैं उपवन सूख गया 

 

अक्षत से शिखिर नमन हुआ 

 

मैं इठला हुआ हिमालय हूँ 


 

बाग़

 

सूख गया ये बाग़ क्यों ?

 

निर्लिप्त सा उदासीन क्यों ?

 

पुष्प रिक्त ये वृक्षहीन जैसे की हो इसकी तौहीन 

 

न मृगनयनी मीन है न वृक्षों की टीन 

 

न शोभित सुगंद है न फलों की जीन 

 

सूख गया ये बाग़ क्यों 

 

निर्लिप्त सा उदासीन क्यों 

 

अतृप्त सी ये भू क्यों चीखती पुकारती 

 

ह्रदय में जलती आग कायरों को पुकारती 

 

करुणा फिर इस ह्रदय में विराजती 

 

 मातृत से  यह तुमको पालती 

 

ह्रदय में तुम शून्य हो

 

कायरों के वीर हो 

 

निर्लज्जता पहचान है 

 

कार्य ही इतना महान 

 

नेत्रों को खोलो तुम मार्ग की पहचान में

 

कानों में गूंजता एक ही सवाल है 

 

सूख गया ये बाग़ क्यों ?


 

अंगार

तप गया हूँ शोलों में

 

अंगार थोड़ी दे दे

 

राख की बुझी पर आज तालाब तू  लेले

 

मैं सूर्य के प्रकाश में तत्पर सुलगता हूँ

 

आज फिर कांटो के मार्ग पर  कदम रखता हूँ

 

तिमिर के आकाश मैं प्यास है दिनकर

 

धधक रही ज्वाला को आज खोजता

 

कुंठित च्नद्र की रागिनी मैं लिपटे हुए आज

 

मैं कल की सुलग को फिर बुनता हूँ

 

ख्वाब तेरे भी हैं ख्वाब मेरे भी हैं

 

फिर ख्वाबों की स्याही से मैं ही क्यों लिखता हूँ

 

धड़क रहे विचारों की आग उमड़ रही

 

हाथों से लाख क्यों फिसल रही

 

लगता है तप गया हूँ शोलों में

 

राख की बुझी पर

 

आज अंगार तू  लेले
शून्य को ताकता मेरा ह्रदय

 

शून्य को ताकता मेरा ह्रदय 

 

मदद को पुकारता है 

 

अंधकार में रौशनी को ढूंढता है 

 

धित्कार है इस पुकार पर 

 

अपनी ही चीज़ को तरसता है मेरा ह्रदय 

 

शून्य को ताकता है मेरा ह्रदय 

 

लालच की इस लहर में क्यों डूब गया है स्वाभिमान 

 

कहाँ गया इस अंधकार में मेरा आत्मसम्मान 

 

अपनों की पुकार में क्यों खो गई मेरी पहचान 

 

दूसरों की चाह में क्यों खो गई मेरी मुस्कान 

 

भूल क्यों मैं गई कि अलादीन का जिन्न नहीं 

 

हूँ तो मैं भी इंसान 

 

ह्रदय के एक कोने में जलती है आग 

 

क्यों अंधकार में डूब गया मेरा विश्‍वास 

 

क्यों शून्य को ताकता मेरा ह्रदय

 

निर्लिप्त सा उदासीन क्यों ?

 

 


 

हार गए क्या 

 

 

हार गए क्या ?

 

अरे ! अभी तो मंज़िल बाकी है 

 

टूट गए क्या 

 

संघर्ष अभी ज़ारी है 

 

 

संघर्ष है आत्मसम्मान का 

 

संघर्ष है जीवन की दौड़ का 

 

संघर्ष है जीने का 

 

अरे यही तो मंज़िल की पहचान है 

 

 

गिर गए क्या ?

 

अरे यही तो शुरुआत है 

 

अँधेरे के बीच सूर्य के आगमन की यही तो पहचान  है 

 

यही तुम्हारी राह है 

 

हारना तुम्हे नहीं 

टूटना तुम्हे नहीं 

अभी तो राह बाकी है

हार गए क्या

संघर्ष अभी ज़ारी है