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लूज कैरेक्टर

लूज कैरेक्टर

जयंती रंगनाथन

गनीमत... कमरे का दरवाजा खुला हुआ था। हलका सा दरवाजा धकेल कर मैंने अपना सिर कुछ अंदर ले जाते हुए पाया, अंशुल बिस्तर पर बैठा अपने लैपटाप में मगन था। मैंने हल्का सा दरवाजा खटखटाया, अंशुल चौंक गया, ‘डैड, अंदर तो आइए। बाहर से ही...’

मैंने अपने आपको संयत किया और देर से दोहराया गया अपना डॉयलॉग उसके सामने उगल दिया, ‘अंशुल, लुक...तुम अपने लिए लड़की खुद ही देख लो। मुझसे नहीं होगा। इनफ…’

‘क्या हुआ डैड? किसी से पंगा हो गया?’

‘पंगा? नो...बस कह दिया ना। अर्रे आज के जमाने के लड़के हो। अपने बाप से लड़की ढुंढ़वाते शर्म नहीं आती? लुक सन! मेरे बस का नहीं है यह सब... ’

अंशुल अचानक हंसने लगा, ‘डैड, मुझे कोई जल्दी नहीं है शादी की। सच कहूं तो मेरे बस का भी नहीं है। चिल... ’

‘कोई चिल-विल नहीं। तुम अपनी सारी जिम्मेदारियां मुझ पर मत थोपो।’

अंशुल हंसते-हंसते रुक गया, ‘आप इतने सीरियस क्यों हो गए? जैसा चल रहा है, चलने दीजिए। आप क्यों टेंशन ले रहे हैं?’

टेंशन? मैं पीछे हट गया। उसके कमरे का दरवाजा बंद कर घर से बाहर निकल आया। ठीकठाक रात हो गई थी। सड़क एकदम से सुनसान हो गई। मैं तेज कदमों से चलने लगा। बगल के मकान में इस वक्त कोई तेज आवाज में गाना बजा रहा था। मैंने रुक कर भांपने की कोशिश की, हिंदी गाना, अंग्रेजी गाना? नया है या पुराना? कुछेक शब्द पल्ले पड़े... अंगारा, होश, सेक्स टॉय, लाइफ की एफ ओ... नया ही होगा। झुंझलाया सा आगे बढ़ गया, इन दिनों अधिकांश चीजें नई लगती हैं, फोन के नए ऐप, नए गाने, नये जारगन... लगता है तेजी से उम्र बढऩे लगी है, दिन में जितना भी अपडेट करता रहूं, रात आते-आते लगता है वो भी पुराना हो गया।

सडक़ खत्म हो गई। हाइवे शुरू हो गया। तेज आती-जाती गाड़ी की रोशनी आंखों को अंधा सा करने लगी। मन हुआ, आधे किलोमीटर दूर काके के ढाबे पर जा कर गर्मागर्म तंदूरी चिकन खाऊं। घर पर जीत राम ने चिकन ही बनाई थी। अंशुल ने शायद खाना खा लिया था। जीत कहता रहा, पर मेरा खाने का मन नहीं हुआ।

जब तक मैं ना लौटूं, वह रोटियां नहीं बनाएगा। सालों से आदत है मुझे गर्म रोटियां खाने की और उसे खिलाने की।

हायवे पार करने में मुझे दस मिनट लग गए। काके के ढाबे में हमेशा की तरह भीड़, शोर और धक्कमपेल थी। मालिक मुझे पहचानता था। मेरी उम्र का होगा। मेरी उम्र? सबको मेरी उम्र जानने की इतनी जल्दी क्यों रहती है? पता तो है कि अंशुल जितने बड़े लडक़े का डैड हूं। शादी लायक बेटा। अब मैं कहूं कि छत्तीस का हूं, तो यकीं कर लोगे क्या? पर ये भी मुझे मंजूर नहीं कि मुझे सत्तर पार का ही बना दो। साठ भी ज्यादा लगता है...चलो ठीक है, साठ रहने देते हैं! इससे ज्यादा नहीं।

पिट्टू ने मुझे देखते ही एक कुर्सी खाली करवा दी मैंने भी गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए कहा, ‘क्या हाल है बिट्टू सर? ’

वह खिसिया कर बोला, ‘चंगा जी, आप बताओ। आप तो मेरा नाम ही भूल जाते हो।’

आज से कई साल पहले जब उसने अपना नाम पिट्टू बताया था, हम दोस्त जो उस वक्त साइकिल पर थे, खूब हंसे थे। पर था बंदा कमाल का। सालों पहले ढाबे में लग गया। दाल मखनी में तो अपना कलेजा ही घोंट कर मिला देता।

जीत राम को अपने अक्स से दूर भगा कर मैंने तंदूरी चिकन, दाल मखनी के साथ लच्छा परांठा आर्डर कर दिया। टेबल सजने से पहले पिट्टू मेरे पास ही आ कर बैठ गया, ‘उदय भाई, बड़े दिनों में आए। मुझे लगा आप हमेशा के लिए शहर छोड़ गए हो।’

‘कहां पिट्टू? घर यहां बनवा लिया। तो यहीं तो लौटना हुआ।’

‘और बताओ? बेटे की शादी बना दी? ’

मैं चौंका। बेटे की शादी यहां भी पीछा नहीं छोड़ रही। मैंने नहीं में सिर हिलाते हुए उससे ही पूछ लिया, ‘तुम बताओ? बच्चे क्या कर रहे हैं?’

‘मैं तो दादा भी बन गया। बड़ा लड़का ठेकेदारी का काम करता है। छोटा मेरा हाथ बंटाता है।’

‘वाह, कैसे की शादी?’

उसने उजबकों की तरह मेरा मुंह ताकते हुए कहा, ‘शादी? वो तो सबकी जैसी होती है, वैसी ही हुई। हम लड़की वालों के पास गए। लड़के ने लड़की को देखा, मेरी घरवाली ने पसंद किया, बस... ’

समझ गया, गलत आदमी से सवाल पूछ बैठा। सच है, शादियां तो आज भी वैसी ही होती हैं, जैसे हुआ करती थीं। सबके घर ऐसे ही होती है। जैसे दादा की हुई, बाप की हुई, बेटे की भी। मामला कुछ हमारा ही अलग है।

खा-पी कर उठा। पिट्टू ने काफी तगड़ा डिसकाउंट दे मारा यह कह कर कि अगली बार अपने पुत्तर को भी ले आना।

अंशुल आखिरी बार यहां कब आया था मेरे साथ? शायद बीस साल पहले? वर्षा भी थी साथ में। मेरी बीवी।

मूड अच्छा सा हो आया। तंदूरी चिकन की इस नई भूमिका पर मन बाग-बाग हो उठा। मन हुआ कुछ गुनगुनाते हुए सड़क पार करूं। शायद गाने भी लगा था, पग घुंघरू बांध मीरा नाची थी...हम नाचे बिन घुंघरू के।

रात के साढ़े दस...ग्यारह बजे। सडक पर गंजे सिर, फूलों वाली प्रिटेंड टी शर्ट पहने मैं कुछ घंटे पहले की अपनी चिंताओं को भूल ऐसे तफरी कर रहा था... मानो, मानो...मैं इक्कीस साल का ताजा-ताजा जवां हुआ कोई लौंडा हूं।

एकदम से दिमाग में बत्ती जली, यही तो वजह है जो मुझे अपने बेटे के लिए लड़की नहीं मिल रही। अचानक मिले इस ज्ञान से मैं अकबका गया। सचाई कभी-कभी तल्खी की पुड़िया भी साथ में परोस देती है। ऐसा लगा जैसे मेरे सामने बरसों बाद किसी रहस्य का खुलासा हो गया हो। मैं जल्दी से सड़क पार करने लगा। घर पहुंचा तो जीत तेजी से बरामदे में पुरानी हिंदी फिल्म के हीरो के बाप की तरह चहलकदमी कर रहा था। मेरे चेहरे पर मुस्कराहट देख वो खीझ गया, ‘ये तो हद हो गई ना साब। मोबाइलवा साथ में रखने के लिए होता है या सिर्फ चार्जिंग पर ही लगाए रखेंगे? कहीं जाना था तो साथ मुझे ले लेते। अंशुल भैया को ले लेते। आप तो ना, डरा ही देते हो। इस उम्र में...’

मैंने आंखें तरेरी, ‘किस उम्र में बे? मेरा घर, मेरी मर्जी, जहां जाऊं... ’

उसका चेहरा कन्फ्यूज होते –होते फ्यूज हो गया, ‘आपका खाना गरम करूं? ’

‘नहीं। तू खा-पी ले। कल सुबह मैं वॉक पर जाऊंगा। पांच बजे जगा देना।’ मैं सैंडिल बजाते हुए अपने कमरे में चला आया।

अभी तक मुझे इस सवाल का जवाब नहीं मिला था कि मैं अंशुल के लिए लड़की क्यों नहीं सेट कर पा रहा? आज लाला जिस परिवार में मुझे ले गया था, चौखट पर कदम रखते ही, मैं समझ गया कि मुझसे क्या और कैसे सवाल पूछे जाएंगे। मैं चाहता था लाला जी और दूसरे जीओं को परे हटा कर लड़की से सीधे सवाल करूं। लड़की ठीक सी माडर्न लग रही थी। पर उसके ठीक पड़ोस में बैठी मां नुमा महिला, जो मुझे कुछ साल छोटी होगी, ने ऐसे सवाल दागने शुरू कर दिए कि मैं हाहाकार कर उठा।

-आप शादी के बाद बेटे-बहू के साथ ही रहेंगे?

- घर आपके नाम है या बेटे के नाम?

- आपने दूसरी शादी काहे नहीं की?

हद तो तब हो गई, जब उन्होंने यह सवाल दाग दिया,

-आपने गंजेपन का इलाज क्यों नहीं करवाया?

मैंने पता नहीं क्या जवाब दिया, क्या नहीं। लौटते में लाला ने धीरे से कहा, ‘अंकल, आप आगे से लड़की देखने अकेले मत आइए। फैमिली, जैसे फ्रेंड की फैमिली वगैरह के साथ आइए। इससे ठीक सा इंप्रेशन पड़ेगा।’

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बात समझ आ गई। अरैंज्ड मैरिज के अपने उसूल होते हैं। सालों अबूधाबी में नौकरी करने के बाद तीन साल पहले लौटा हूं। शुरू के कुछ साल वर्षा और अंशुल भी मेरे साथ वहीं रहते थे। पर जब अंशुल कॉलेज की पढ़ाई के लिए दिल्ली आया, तो वर्षा ने तय कर लिया कि वह बेटे के साथ रहेगी। मेरे साथ रह गया जीत राम। अंशुल पढ़ाई के बाद मर्चेंट नेवी में चला गया। तीन साल पहले जब मैं अपना बोरिया बिस्तरा बांध वतन लौटा, तो पाया कि मैं तो इस समाज में रहने लायक ही नहीं रह गया। वर्षा के गुजरने के बाद तो और भी नहीं। वही टोक दिया करती थी, घर में मेहमान आए हैं, इतना छोटा कच्छा मत पहनो। मेरा बस चलता तो नन्हे-मुन्ने शॉर्ट्स में जिंदगी निकाल देता। यहीं आ कर पता चला कि हर वक्त खाने की बात करना तो सही है, पीने की नहीं। वर्षा ने कभी मुझे एक पियक्कड़ के रूप में एक्सपोज नहीं किया था। यहां तो मुझे तरह-तरह से शराब छुड़वाने के नुस्खे मिलने लगे।

पास-पड़ोस और छोटे-मोटे रिश्तेदारों ने साल भर में मेरा जीना हराम कर दिया, जब देखो, अंशुल की शादी का राग आलाप देते। बेटा तीस का होने को आया है, शादी नहीं करनी है क्या?

मुझे हर तरह से ब्लैक मेल किया जाता, डराया जाता कि उसकी शादी ना होने पर मुझ पर किस-किस तरह की आपत्ति आ सकती है। दूर के रिश्ते की दीदी ने यहां तक कह दिया कि मेरी वजह से मेरे बेटे का दिमागी संतुलन बिगड़ सकता है।

ठीक है, तय किया कि अंशुल की शादी कर ही देता हूं। जनाब खुद तो अपने लिए लड़की तलाश नहीं कर पाए, मेरा काम बिगाड़ दिया। रोज लंच से पहले हाथ में ठंडी झागदार बियर का गिलास ले कर मैं लैपटॉप के सामने बैठ जाता, शादी डॉट काम, जीवन साथी डॉट काम जैसे मैट्रीमोनियल साइट खोल लेता। रोज लिस्ट बनाता, किसके ईमेल का जवाब देना है, किसे फोन या एसएमएस करना है... फिर लाला भी तो साथ था मेरे…

...

लीजिए, आप भी लाला के नाम पर चले गए ना! धोखा तो मैंने भी खाया था। शादी का ब्रोकर, वो भी लाला नाम का। थोड़ा मोटा, थोड़ा काइयां, जीजी करके लहालोट होने वाला, चिपकू टाइप का इनसान। ये लाला तो गजब का दुबला है, सिर पर पूरे बाल हैं, भोला सा, कम बोलने वाला। खानदानी काम था शादी ठीक करवाने का, सो खुद भी लग गया। उसके चाचा से मेरी पुरानी पहचान थी। उन्होंने ही कहा था, लाला नए जमाने का लौंडा है। सही जगह आपके बेटे की गोटी फिट करवा देगा।

लाला को कई बार मैंने अपने लिए परेशान पाया। वो मुझे अंकल कहता था। उसे देख कर लगता था यह उसकी जिंदगी का पहला असाइनमेंट है और उसे वह किसी भी दम पर पूरा करना चाहता है।

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मेरे लिए क्या इतवार और क्या सोमवार। अंशुल वापस शिप में लौट गया था और उसके जाते ही मैंने गोल्फ क्लब की सदस्यता ले ली। शायद वहीं कहीं मिल जाए भावी बहू का भारी-भरकम बाप!

गोल्फ खेल कर लौटा ही था, नहा कर अपना पसंदीदा शार्ट्स पहन कर फ्रिज से बियर की बोतल निकालने ही जा रहा था कि दरवाजे पर घंटी बजी।

जीत ने दो मिनट बाद आ कर कहा, ‘सरजी, लाला साहब आए हैं…’

लाला के साथ साहब के जुड़ते ही मैं अटेंशन में आ गया। ये कौन आ गया लाला के नाम पर।

था तो लाला ही, पर पीछे एक अजीब सी परछाई भी थी।

मेरे आगे बढ़ने से पहले लाला खुद ही आगे आ गया और कान में फुसफुसाते हुए बोला, ‘अंकल, एक आंटीजी को लाया हूं आपसे मिलाने, वो कहती हैं आपको पहले से जानती हैं। पर आप… ऐसे जाएंगे क्या उनके सामने?’

लाला की नजरों का ताव कहें या बेचारगी, मैं दो मिनट में एक जीन्स डाल आया।

परछाई सामने आई। ये किस उम्रदराज औरत को ले आया लाला? ठिगने कद की वजह से मोहतरमा का शरीर भारी सा लग रहा था। लगभग सफेद बाल। पीले रंग की सलवार-कमीज। मेरे चेहरे पर गजब का उलझन देख परछाई आगे बढ़ आई, ‘पहचाना?’

मैं जोर-जोर से नहीं में सिर हिलाने लगा।

‘अरे, हम कॉलेज में एक ही क्लास में थे… साथ में थियेटर करते थे।’

मेरी क्लासमेट, इतनी बूढ़ी? मैं कुछ कहने जा रहा था कि परछाई समझ गई जो मैं नहीं समझ पा रहा था।

‘मैं सरिता…और याद दिलाऊं क्या? बीए फाइनल इयर में हमने रोमियो जूलियट प्ले किया था…’

जूलियट… सरिता… जिसके घुंघराले बालों पर पूरा कॉलेज आहें भरता था? जिसकी कंजी आंखें रातों को सोने नहीं देती थी? जिसकी आवाज सुन हजारों सिर हॉस्टल की खिड़की से मुंडी बाहर को ले आते थे?

सरिता तब भी घाघ थी, अब भी है। समझ गई मेरे दिल की बात।

‘उदय… अब यह मत कहना कि मैं बूढ़ी हो गई हूं और तुम जवां के जवां रहे।’

मैं खिसिया कर हंसने लगा, ‘ना जी। सरिता जी, आप ना भी बतातीं, तो पकड़ लेता। कैसी हैं, इतने साल हो गए।’

‘काम की बात करें? लाला है ना, मेरे घर आया था कल रात। मेरी बेटी का रिश्ता भी इसीने करवाया था। बातों-बातों में तुम्हारा जिक्र कर बैठा कि तुम्हें अपने बेटे के लिए लड़की ढूंढने में दिक्कत आ रही है। मुझे समझ आ गया था कि वो तुम्हारी बात कर रहा है। मैं मिलने चली आई। मैं तो बस टाइमपास के लिए सोशल वर्क कर लेती हूं। बोलो, अगर मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकी तो…’

‘क्यों नहीं, बैठो ना? क्या पियोगी?’

‘वो तो नहीं, जो तुम पीना चाह रहे हो। चाय-शाय पिला दो। हमारी तो भई इसीकी औकात है।’

दस मिनट… बस दस मिनट बाद फिर से मुझे ज्ञान की प्राप्ति हो गई… मैं वाकई अपनी उम्र के लोगों के साथ मिलने-जुलने के काबिल ना रहा।

सरिता की बातें, अपने पति, उनकी बीमारी, अपनी बेटियों की शादी, उनके ससुराल वालों का कंजरपन, अपनी पांव की तकलीफ से आगे ही नहीं बढ़ी और मैं बेचैन होने लगा कि कब ये जाएं और कब मैं फ्रिज का दरवाजा खोल अमृत की कुछ बूंदें अपने मुंह में डालूं।

सरिता के बाद लाला ने भी जोड़ दिया, ‘अंकल, कल मैं आपको यहां के कलेक्टर के यहां ले जा रहा हूं। उनकी भी वाइफ नहीं है। उनकी बेटी ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करी है। हम सरिता आंटी को आपकी बहन बना कर ले जाएंगे। बात आप उनको करने दीजिए… आप बस सिर हिलाते रहिए। अच्छा परिवार है सर। यहां बात बन जाए तो बल्ले-बल्ले हो जाएगा।’

सरिता मेरी तरफ से बात करेंगी? क्या? उसे तो मेरे परिवार के बारे में खाक मालूम है। मैंने सोचा बीच में टोक दूं, पर चुप रह गया। इस समय सरिता के सामने अपना बायोडाटा खोलना सही नहीं लग रहा था।

जाते-जाते लाला यह भी कह गया कि अंकल उचित होगा कि आप जीन्स की जगह ढंग से तैयार हो कर आएं, कुर्ता टाइप कुछ पहन लें। प्लीज अंकल… मेरी इज्जत रख लीजिए।

लाला की इज्जत? क्या मेरे कुर्ते में है? कमबख्त क्या हो गया दुनिया को? खैर, मैंने भी सोचा सालों बाद सरिता मिली है, अपनी पुरानी मोहब्बत… फिर गलत लाइन पकड़ ली आपने, मैं बात कर रहा हूं थियेटर का शौक, मेरा इश्क, मेरा जुनून, जो एक समय मेरे सिर पर हावी था, उसे पूरा करूं। चलो, एक नाटक जिंदगी में ही सही। …

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पहली बार मुझे लगा मैं सही लोगों से मिल रहा हूं। देवप्रकाश मुझसे कुछ साल छोटा होगा, पर एकदम फिट। टीशर्ट और जीन्स में हमसे मिलने बाहर चला आया। मुझे अफसोस हुआ कि लाला के कहने पर मैं ओवर साइज्ड कुर्ता पैजामा में क्यों चला आया। मैं उतावला हो गया अपनी औकात, जात और रुतबा दिखाने को। इस समय तो जो साथ था, वो थी मेरी जबान। फिर से गलत मतलब मत निकालिए। मैंने बताया तो था कि मैं धाराप्रवाह और लच्छेदार अंग्रेजी बोलता हूं।

मैं कुछ कहता इससे पहले सरिता का मुंह खुल गया। उसने अपने आपको मेरी बहन जी बताया।

प्रकाश जी ने सवाल दागा, ‘आप बड़ी बहन हैं कि छोटी बहन…’

मैं बड़ी कहने जा रहा था कि सरिता ने छोटी कह दिया और शुरू हो गईं।

मैं बस उतना ही बोल पाया, जितना मुझे बोलने दिया गया।

इसके बाद देवप्रकाश की लड़की सामने आई। वैसी जैसे मैंने अंशुल के लिए सोच रखी थी। अपने आप में पूरी।

मेरी बहन यानी सरिता ने उसे देखते ही मिडिल क्लास वाले सवाल पूछने शुरू कर दिए, खाना बनाना आता है? गाना गा लेती हो? कॉलेज में कितने नंबर आए थे? नौकरी करोगी शादी के बाद? मां के बाद घर की देखभाल कौन करता है? मां को क्या हो गया? बीमार थीं क्या?

लड़की के चेहरे पर थोड़ी सी मायूसी आ गई। उसने धीरे से कहा, ‘आंटी, माफ करिएगा…मैं ऐसे सवालों के जवाब नहीं दे सकती।’ वह उठने लगी, उसके पापा ने उसका हाथ पकड़ कर अपने पास बिठाते हुए मुझे देख कर कहा, ‘लाला ने कहा था, आप बाहर रहे हैं कई साल। आपका बेटा मर्चेंट नेवी में है। सोचा था, आपके ख्याल कुछ अलग होंगे। देखिए, मैंने अपनी बेटी को बहुत दिल से पाला है, वह जानती है उसे जिंदगी से क्या चाहिए। आप माफ कीजिए, मैं उसे ऐसे परिवार में नहीं दे सकता, जहां जा कर उसे अपनी सोच के साथ समझौता करना पड़े।’

मैंने तुरंत बात संभालने की कोशिश की, ‘आपकी तरह ही मैं भी सोचता हूं प्रकाश।’ फिर मैंने अंग्रेजी में कुछ कहा, लेकिन इससे पहले सरिता मोर्चा दोबारा संभालती हुई प्रकाश एंड परिवार को स्त्री सुबोधिनी पर लेक्चर देने लगी थी।

दस मिनट बाद चाय पी कर हम उठ आए। बाहर आते ही मन हुआ लाला को उलटा-सीधा कहूं कि उसने अच्छे-खासे रिश्ते में सरिता नाम का पलीता लगा दिया। पर सरिता साथ थी, मेरा मुंह बंद रखना ही सही था।

रास्ते भर सरिता मुझे ज्ञान देती हुई आई कि आजाद ख्याल लड़कियां घर के बाहर रखनी चाहिए, घर के अंदर नहीं। मैं न जाने कैसे बोल गया, ‘क्या बात करती हो सरिता? तुम कम आजाद ख्याल थी क्या? आज से तीस साल पहले दो-तीन बॉय फ्रेंड! तुम धड़ल्ले से बॉयज हॉस्टल आया करती थी रात को।’

सरिता का चेहरा लाल से होता हुआ बैंगनी हो गया। लाला को भी मुंह छिपा कर हंसते मैंने देख लिया। अचानक सरिता के अंदर जैसे देवी आ गई, बस मुंह से झाग निकलने और बाल खोलने की देरी थी, ‘तुम तो निहायत बदतमीज हो उदय। पता नहीं किसकी बात कर रहे हो? मैं कॉलेज की सबसे सीधी लड़की थी। तुम खामखां मेरे को बदनाम कर रहे हो। सही कहा था लाला ने, तुम हमारी सोसाइटी के लायक ही नहीं हो।’

मैंने बात संभालने की कोशिश की, ‘अरे, नाराज क्यों हो रही हो? मैं तो सिर्फ यह कह रहा था कि उस जमाने में हम जवान थे, हम सब किया करते थे मस्ती…’

वो गरजी, ‘मस्ती … अपने साथ मुझे क्यों घसीट रहे हो? अच्छा हुआ, तुम्हें घर ले कर नहीं गई। पता नहीं मेरे हजबैंड के सामने क्या ऊलजलूल बक दो।’

इसके बाद भी वह कुछ बड़बड़ाने लगी। अपने घर तक मैं उनको अपनी गाड़ी में ले आया। मेरे घर के सामने लाला की स्कूटर खड़ी थी। ना लाला घर के अंदर आया, ना मेरी बड़ी-छोटी बहन। लपक कर उसने स्कूटर को किक लगाया और दोनों चलते बने।

मैं कुछ देर समझ नहीं पाया कि क्या हो गया। एक अच्छे परिवार से रिश्ता न जुड़ पाने से ज्यादा दहशत मुझे इस बात पर हो रही थी कि सरिता को इस ढलती उम्र में कैरेक्टर सर्टिफिकेट की जरूरत क्यों पड़ गई?

अगले दो दिन शांति से कटे। मैं, बियर और जीत राम के हाथ का असात्विक खाना। दबा कर चिकन और फिश खाने के बाद जा कर कहीं अंदर की सकपकाहट कम हुई।

संडे का दिन था। मैं बगीचे में धूप सेंकते हुए पुराना जेम्स हैडली चेज का नॉवेल पढ़ रहा था। जीत ने आ कर बताया कि मुझसे मिलने लेडीज आई हैं। मेरे दिमाग में लेडीज नाम से जो अक्स आंखों के आगे उभरा, उसकी सोच ने मेरे अंदर झनझनाहट पैदा कर दी। ठरकी बुढ्ढा? हां तो, हूं ना…

कमरे में घुसते ही लेडीज को देख कर मेरे पांव वहीं जम गए।

सरिता जी…

लाल शिफॉन की साड़ी, रंगे हुए बाल, बालों में लाल गुडहल का फूल, होंठों पर लिपस्टिक, कानों में बालियां…

मुझे देख कर वह उठी, उसकी चाल- पैंतरे सब बदले हुए।

मुझे इस तरह हक्का-बक्का देख कर वो इठलाती हुई मेरे पास आई, ‘ऐसे क्या देख रहे हो उदय? लग रही हूं ना वही पुरानी सरिता… जो बॉयज हॉस्टल में आती थी रात को?’

इसके बाद उसने शायद आंख-वांख मारने की कोशिश की।

मेरी आवाज एकदम फंसी-फंसी सी निकली, ‘उस दिन तो तुम बुरा मान गई थी और…’

‘लाला के सामने कहने वाली बात थी क्या ये सब? बेटी-दामाद के सामने कह दिया तो… अच्छा जाने दो… अब बोलो…. कैसी लग रही हूं मैं? ’

कहते-कहते वो पास आ गई, ‘ कुछ तो बोलो… बहुत टाइम लगाया है मैंने तैयार होने में… कल ही बाल सेट करवाए हैं… इसी लट पर तो तुम लड़के लोग जान देते थे। है ना…’

मैं दो कदम पीछे हट गया। सरिता हंसती हुई मेरे पास आ गई, ‘क्या हुआ? इतना घबरा क्यों रहे हो? बहुत दिन बाद किसी लेडीज को इतना करीब देख रहे हो क्या? लाला ने बताया, कई साल हुए तुम्हारी वाइफ को गुजरे।’

मैं वाकई डर गया। आखिर मोहतरमा चाहती क्या हैं? मुझे पता था कि जीत घर पर नहीं है, फिर भी मैंने जरा जोर से आवाज लगाया, ‘जीत, भई पानी-वानी लाओ…’

‘रहने दो ना फॉर्मेलिटीज। वो सब तो होता रहेगा। हां, आज मुझे चाय पीने को मत कहना…’

इस वाली सरिता से तो वो देवी टाइप वाली बहन जी भली थी। कम से कम उसकी बातें और गुस्सा समझ तो आ रहा था।

सरिता बड़े आराम से चलती हुई आई और सोफे पर धमक कर बैठ गई, ‘कितने साल हुए ना, ऐसे बैठ कर बात किए हुए। मैं तो अपने बारे में बोले जा रही हूं। तुम सुनाओ‌? शादी क्यों नहीं की दोबारा? कोई गर्ल फ्रेंड?’

मैं उसके सामने एक मोढ़ा सरका कर बैठ गया। समझ नहीं आ रहा था कैसे लूं उसे? घर से जाने को कहूं या… अफसोस हो रहा था कि जीत को मैंने बाजार सामान लाने क्यों भेज दिया।

क्या सोच कर आई है सरिता यहां?

‘याद है उदय, हम थर्ड इयर में थे… चंडीगढ़ गए थे कॉलेज ड्रामा कंपटीशन के लिए… ड्रामा में एक सीन में मुझे एक कोट पहनना था और तुम लड़कों ने मिल कर अपनी पॉकेट मनी से सेक्टर 17 के मार्केट से मेरे लिए गोल्डन कोट खरीदा था… आज भी है वो कोट मेरे पास…’

‘क्या बात कर रही हो? पैंतीस…. उससे ज्यादा साल हो गए…’

सरिता सोफे पर थोड़ा आराम से बैठ गई, ‘वो टाइम मेरी लाइफ का सबसे अच्छा वक्त था… मैं थी क्वीन बी… लगता था मैं जो चाहूंगी वो हो जाएगा…’

‘सबको ऐसा लगता था सरिता… हम सब जवां थे, जिम्मदारियां नहीं थी, लड़कपन था… जानते नहीं थे दुनिया के उसूल…’

‘उसूल… ठीक पकड़ा तुमने। हम सबके मिडल क्लास सपने। तुम सब कॉलेज के बाद आगे निकल गए, देखा भी नहीं पीछे क्या छोड़ गए हो।’

मेरे चेहरे पर सवाल सा उभर आया, ‘हम सबको आगे ही तो जाना था ना… कॉलेज के दिनों को पकड़ कर कैसे रुक सकते थे…’

‘मेरी बात नहीं समझे? उदय… जरा मेरी तरफ देखो। मैं क्या थी… तुम लड़के लोग मेरी एक झलक पाने, मेरे साथ कॉफी पीने को दौड़े चले आते थे। बेट लगाते थे आपस में, कौन सरिता के साथ कितनी देर तक बैठा। मैं वो थी, कॉलेज की बॉम्ब शैल। अब देखो… क्या हाल हो गया है मेरा? ’

मैंने थोड़ा अटपटाते और सकुचाते हुए कहा, ‘ये हाल तुमने खुद ही तो बनाया है। कम से कम अपने ख्यालात तो मॉर्डन रहने देती…’

वो थोड़ा गरज कर और थोड़ा भावुक हो कर बोली, ‘तुम ऐसी दलील कैसे दे सकते हो? शादी तो तुमने भी अरैंज्ड ही की ना। अपनी मां के कहने पर। सुना था कि खूब दहेज-वहेज भी दिया था… तुम भी तो पिंकी के ऊपर लाइन मारा करते थे, मुझे पर दिल रखते थे… फिर शादी के समय हम दोनों क्यों याद नहीं आए? बड़ा सीना चौड़ा कर मेरे बॉय फ्रेंड का जिक्र किया था तुमने। कहां गए सब? कॉलेज खत्म, आशिकी फिनिश्ड!’

सरिता रुक कर फिर से बोलने लगी, ‘मेरे माथे पर एक बट्टा जरूर लग गया कि यह चीप टाइप की लड़की है, लूज कैरेक्टर। लड़कों के साथ घूमती है, बिंदास है… मेरी शादी में बहुत प्रॉब्ल्म्स आईं… तीस की हुई तब जा कर दूर के एक रिश्तेदार ने बात चलाई।’

सरिता की आवाज भर सी आई। मैं खुद ही किचन में जा कर उसके लिए पानी ले आया। सरिता पानी पी कर कुछ ठीक सी हुई। मेरे चेहरे पर भी ठीक सी स्माइल आ गई।

‘तुम तो इतनी बोल्ड और बिंदास रही हो सरिता…’

वो बीच में मेरी बात काट कर बोली, ‘वो तो अभी भी हूं। देखा नहीं, दबंग बन कर रहती हूं। ऐसा नहीं करती, तो मुझे कोई जीने नहीं देता। कॉलेज के दिनों में अम्मा से हमेशा लड़ाई रहती, वो आम कहती, मैं कहती आइसक्रीम। मेरा कॉलेज जाना, कंपटीशन में भाग लेना उनको पसंद नहीं था। वो बस शादी-शादी करती रहतीं। बाद में जब कोई लड़का आगे नहीं आया, तो उनको बोलने का मौका मिल गया। शादी के बाद भी कोई बहुत आसान नहीं था… इन लॉज क्या हजबैंड भी… ताना देने से कभी नहीं चूकते।’

सरिता ने कुछ रुक कर कहा, ‘उदय… मैं तो शुरू से ऐसे ही बिंदास जीना चाहती थी। असली वाली मैं तो ऐसी ही हूं। बाकि तो दूसरों के लिए बनती हूं। वो सोशल वर्क, वो बकबक… वो घिसी-पिटी बातें, ज्ञान…इस उम्र में घर से बाहर निकलने का मौका मिल जाता है। बकबक करने के बहाने सबको झाड़ भी देती हूं। लाउड बनने के फायदे भी हैं ना…’

मैं सरिता को समझने की कोशिश कर रहा था। सालों पहले जब मेरी बीवी वर्षा ने कहा था वो स्वीमिंग सीखना चाहती है, तो सबसे पहले उसे मैंने ही रोका था कि इस उम्र में स्वीमिंग सूट पहन कर सबके सामने जाओगी? वर्षा ने शायद मेरी बहुत परवाह नहीं की। जब वह अंशुल के साथ यहां आ कर रहने लगी तो उसने स्वीमिंग भी सीखी और गाड़ी चलाना भी।

सरिता को मैं बताऊं? नहीं। शायद उसे अच्छा नहीं लगेगा।

सरिता बात करते-करते चुप हो गई। मैंने पूछ लिया, ‘मेरे पास ठंडी बियर है। पियोगी? नौकर बाहर गया है। किसी को पता नहीं चलेगा…’

उसने हां में सिर हिलाया। मैं दो कांच के बड़े वाले गिलास में झागदार ठंडी बियर भर कर ले आया। सरिता ने मेरे हाथ से जाम उठा कर एक झटके में दो-तीन घूंट पी लिया। इसके बाद उसे खांसी का दौरा सा पड़ गया। एक वक्त था जब वो बियर कंपटीशन में हम लड़कों पर भारी पड़ती थी। तब यह भी लगता था कि पता नहीं यह बॉम्बशैल, ये तूफान किसके हाथ लगेगा? आज मेरे सामने बैठी है वो, अपने पुराने दिनों को दोबारा जीने की हारती हुई कोशिश में अपने आपको पहचानने की कोशिश करती हुई…

मैंने उसे खांसते-खांसते बियर पीने दिया। वो पुराने दिनों को याद करते हुए बहुत कुछ कहती रही। यह भी कि उदय, तुम भी दगाबाज निकले… आज मार्डन बहू ढूंढ़ने चले हो, सालों पहले मार्डन बीवी से परहेज क्यों कर लिया?

मैंने उससे कहा कि मैं उसे घर तक छोड़ आता हूं। पर वह तैयार नहीं हुई। कुछ अजीब तरीके से हंसते हुए बोली, ‘ तुम आओगे? मेरे घर? क्या बोलूंगी अपने हजबैंड को? क्लास मेट? बॉय फ्रेंड? रहने दो… तुम तो चले जाओगे, हजबैंड, पड़ोसी और बेटी के ताने मुझे सुनने पड़ेंगे। जिनके साथ मैं रहती हूं, उनके जैसा बन कर रहना पड़ता है मुझको। अच्छा लगा तुमसे मिल के उदय। लाइफ में थोड़ी जान आ गई। …तुम चाहोगे, तो आ जाया करूंगी कभी-कभी, चोरी-चुपके। फोन कर लेना… मेरा नंबर है ना तुम्हारे पास…’

जीत के आने से पहले उसके लिए मैंने ओला मंगवा दिया। अपनी लाल साड़ी और पुंछ गए मेकअप को संभालती हुई और फिर मिलने को कह कर वो चली गई।

उसके जाने के बाद देर तक मैं बरामदे में बैठ कर सोचता रहा, उसके बारे में। अपने आपको गिल्टी महसूस करता रहा। इस बीच कब मैंने अपने मोबाइल से उसका नंबर डिलीट कर दिया, पता ही नहीं चला…

एक सप्ताह बाद लाला फिर से मेरे दरवाजे पर आ खड़ा हुआ, ‘अंकल, एक एनआरआई फैमिली से रिश्ता आया है। मैंने सरिता आंटी से बात कर ली है। वो साथ चलने को तैयार है… इस बार आप ही बात कर लेना। जो चाहे पहन कर आ जाना…बस अबकि फाइनल कर लो अंकल… कितने दिन अपने लड़के को कुंआरा रखोगे?’

मैंने अपना चेहरा सपाट रखते हुए उससे कहा, ‘लाला, बेटा। मैं तुमसे कहना भूल गया। मेरे बेटे ने खुद ही लड़की पसंद कर ली है…’

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